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पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/८३

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पहला परिच्छेद


घूसोंसे उनकी पूजा करने लगती थी, वे थप्पड़ और घूसे भी हलके नहीं होते थे खब तौल तौलकर लगाये जाते थे। एक दिन संन्यासीजीने शान्तिको अकेले में पाकर जबरदस्ती उसका हाथ पकड़ लिया। शान्ति किसी तरह अपना हाथ न छुड़ा सको, किन्तु संन्यासीके दुर्भाग्यसे वह हाथ शान्तिका बायाँ हाथ था, इसलिये उसने दाहिने हाथसे संन्यासीके सिरमें इस जोरका घुसा मारा कि वे मूर्छित हो गिर पड़े। उसी दिन शान्ति सन्यासी दल छोड़कर भाग गयी।

शान्ति बड़ी निडर थी। वह अकेली हो अपने देशकी ओर भाग चली। साहस और बाहुबलके प्रभावले वह निर्विघ्न रही। भीख मांगती और जंगली फलोंसे उदर-पोषण करती; मारपीट कर लोगोंको परास्त करती, वह ससुरालमें आ पहुंची। यहां आकर उसने देखा, कि ससुर स्वर्गवासी हो गये हैं। उसकी सासने जातिच्युत होनेके डरसे उसे अपने घरमें न रखा। शान्ति घरसे बाहर चली गयी।

जीवानन्द घरपर ही थे। वे भी शान्तिके पीछे लगे। उन्होंने बीच रास्तेमें उसे जा पकड़ा और उससे पूछा,-"तुम क्यों घरसे भाग गयी थी? इतने दिन कहां थी?"

इसके उत्तरमें शान्तिने सब कुछ सचसच सुना दिया। जीवानन्दको सच झूठकी अच्छी पहचान थी। उन्होंने शान्तिकी बातोंका विश्वास कर लिया।

अप्सराओंकी सी बांकी भौंहोंवाली तिरछी चितवनकी ज्योति लेकर जो 'सम्मोहन' नामका तीर बड़े यत्नसे बनाया गया है, उसे कामदेव विवाहित दम्पतिके लिये व्यर्थ ही खर्च करना नहीं चाहते। अंगरेज़ पूनोंकी रातमें भी सड़कोंपर गैस बत्ती जलाते हैं, बंगाली जिसके सिरमें तेल लगा होता है, उसीके सिरमें और तेल लगाते हैं मनुष्योंकी बात तो दर किनार, चन्द्रदेव सूर्यदेवके बाद हो आकाशमें उदित हुआ करते