पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/८५

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दूसरा परिच्छेद


जो मर्दानगी थी; वह धोरे धीरे लुप्त हो गयी। रमणीके रमणीय चरित्रका नित्य नया विकास होने लगा। पहले कुछ दिनों तक तो उसका जीवन एक सुख-स्वप्नकी तरह बीता, पर यकायक सुख-स्वप्न टूट गया। जीवानन्द सत्यानन्दके हाथमें पड़ गये और सन्तान धर्म ग्रहण कर शान्तिको छोड़कर चल दिये। इस परित्यागके बाद निमाईकी बदौलत जो प्रथम साक्षात् इन दोनों स्त्री-पुरुषका हुआ था, उसका हाल पिछले परिच्छेदमें वर्णन किया गया है।




दूसरा परिच्छेद।

जीवानन्दके चले जानेपर शान्ति निमाईके घरके बरामदेमें जा बैठी। निमाई भी गोदमें उस लड़कीको लिये हुये वहीं आ बैठी। इस समय शान्तिकी आंखोंमें आँसू नहीं थे। वह आंखें पोंछ, बनावटी हंसीसे मुस्कुरा रही थी। हाँ, कुछ कुछ गम्भीर चिन्तायुक्त और अनमनी अवश्य हो रही थी। निमाई समझ गयी, बोली,-"खैर, किसी तरह मिलना तो हुआ।"

शान्ति कुछ न बोली, चुपचाप रही। निमाईने देखा कि शांति अपने दिलकी बात न कहेगी। उसे यह भी मालूम था, कि शांतिको मनकी बात कहना पसन्द नहीं, इसलिये उसने जान-बूझकर दूसरी चर्चा छेड़ दी, बोली,–“बहू! यह लड़की कैसी है?"

शान्तिने कहा,-"यह छोकरी तुम्हें कहांसे मिली? तुम्हें लड़की कब हुई?”

निमाई-"क्या मुसीबत है! तुमको यमराज उठा क्यों नहीं ले जाते! भाभी! यह लड़की तो भैयाकी है।"

निमाईने शांतिका जी दुखानेके लिये यह बात नहीं कहीं