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पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/८४

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आनन्द मठ


हैं, इन्द्र समुद्र में ही वृष्टि करता है, जिस सन्दूकमें रुपये भरे होते हैं, कुबेर उसीमें और रुपये डाल देते हैं। यमराज जिसके सब किसीको चौपट कर चुके होते है, उसीके बाकी बचे हुए लोगोंको भी उठा ले जाते हैं। केवल कामदेव ही ऐसी निर्बुद्धिताका काम करते हुए नहीं दिखाई पड़ते। जहाँ गठजोड़ा बधा कि उन्होंने वहां परिश्रम करना छोड़ दिया। वहांका भार प्रजापतिको देकर वे ऐसी जगह चले जाते हैं, जहां वे किलीके हृदयका रक्त पान कर सकें। परन्तु आज शायद पुष्पधन्याको और कोई काम नहीं था, इसीसे उन्होंने दो पुष्प-वाणोंका अपव्यय कर डाला। एक तो आकर जीवानन्दके कलेजेमें चुभ और दूसरा शान्तिके हृदयमें। उसीने शान्तिको आज पहले पहल इस बातका बोध कराया, कि उसका हृदय स्त्रीका हो हृदय है-बड़ी ही कोमल वस्तु है। नवप्रेषके प्रथम जल कणोंसे सींची हुई फलकी कलीकी तरह शान्ति एकाएक खिल गयी और आनन्दभरी आंखोंसे जीवानन्दके मुखकी ओर देखने लगी।

जीवानन्दने कहा, "मैं तुम्हें नहीं छोड़ सकता। देखो, जबतक मैं लौटकर नहीं आता। तबतक तुम यहीं खड़ी रहना।"

शान्तिने कहा, "तुम लौटकर आओगे तो?"

जीवानन्दने कुछ उत्तर न दे, बिना किसी ओर देखे, उसी राहकी एक तरफवाली नारियलकी कुञ्जने चुपकेसे शान्तिके होंठ चूम लिये। आज मानों अमृत ही पीनेको मिल गया; यही सोचते हुए वे घर चले आये।

जीवानन्द मांको समझा-बुझाकर उनसे बिदा मांग चले आये। भैरवीपुरमें उनकी बहन निमाईका व्याह हुआ था। बहनोईके साथ उनकी बड़ी गहरी दोस्ती थी। इसलिये वे शान्तिको लिए हुए वहीं आ धमके। उनके बहनोईने उन्हें थोड़ी सी जमीन दी जिसमें एक झोपड़ी बनाकर वे शान्तिके साथ सुखसे रहने लगे। स्वामीके साथ रहते रहते शान्तिके चरित्र में