पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/८९

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तीसरा परिच्छेद


लोगोंपर ऐसे अप्रसन्न क्यों हैं? किस अपराधसे हम लोग मुसलमानोंद्वारा हराये गये?"

सत्यानन्दने कहा-"देवता अप्रसन्न नहीं हैं, लड़ाई में तो हार जीत हुआ ही करती है। उस दिन हम जीते थे। आज हार गये हैं, अन्तमें फिर जीत सकते हैं। मुझे पूरा भरोसा है कि जो इतने दिनोंसे हमारी रक्षा करते आये हैं, वे ही शङ्कचक्र-गदा-पद्मधारी बनवारी फिर हमपर दया दिखलायेंगे। उनके चरण छूकर हमलोगोंने जिस व्रतको ग्रहण किया है, उसका पालन तो हमें करना ही होगा। विमुख होनेसे हमें अनन्त नरक भोगना होगा। मुझे तो आगे मङ्गल ही मङ्गल दिखाई देता है। परन्तु जैसे देवानुग्रह हुए बिना कोई कार्य नहीं सिद्ध होता वैसे ही पुरुषार्थ बिना भो कोई काम नहीं सरता। हमारे हारनेका कारण यही हुआ कि हम निहत्थे थे। गोले-गोलियोंके सामने लाठी, बछे और भालेकी क्या हकीकत है! इसलिये यह कहना ही पड़ता है कि हममें पुरुषार्थ नहीं था, इसीसे हम हार गये। अब हमारा कर्तव्य है कि हम अपने यहाँ भी हथियारों और बन्दूकोंका ढेर लगा दें।"

जीवा०-"यह काम तो बड़ा ही कठिन है।"

सत्या०-"जीवानन्द! क्या सचमुच बड़ा ही कठिन है? सन्तान होनेपर भी तुम्हारे मुंहसे ऐसी बात क्योंकर निकली? क्या सन्तानोंके लिये भी इस दुनियां में कोई काम बड़ा ही कठिन है?"

जीवा०-"आज्ञा दीजिये, कहांसे अस्त्र संग्रह कर लाऊं?"

सत्या०-"इसके लिये मैं आज हो रातको तीर्थयात्रा करने निकालूंगा। जबतक मैं न लौटू, तबतक तुम लोग किसी बड़े भारी काममें हाथ न डालना हां, आपसमें एकता बनाये रखना, सन्तानोंकी प्राण रक्षाके लिये खाने-पहननेकी चीजें संग्रह करते रहना और माताको युद्ध जयके लिये अर्थसंग्रह करते जाना। यह भार तुम दो जनोंपर रहेगा।"