भवानन्दने कहा,-"आप तीर्थयात्राके समय यह सब सामान क्योंकर इकट्ठा कर सकेगे? गोली गोले ओर तोप बन्दूके खरीदकर भेजनेसे तो बड़ी गड़बड़ मच जायगी। और इतना सामान मिलेगा कहाँ? कौन इतना सब बेचनेको तैयार होगा, और कौन ला सकेगा?"
सत्या०-खरीदकर लानेसे हमारा काम नहीं चलेगा। मैं कारीगर भेज दूंगा; उनसे यहीं बनवा लेना होगा।"
जीवा०-"यह क्या? इसी आनन्दमठ में?"
सत्या०-कहीं ऐसा भी हो सकता है? मैं बहुत दिनोंसे इसकी फिक्रमें था, आज भवानन्दकी दयासे मौका हाथ लग गया है। तुम लोग कह रहे थे कि विधाता हमारे प्रतिकूल है, पर मैं तो देख रहा हूं कि वह एकदम अनुकूल है।"
भवारे-“कारखाना कहां खुलेगा?”
सत्या०-“पदचिह्र-ग्राममें।"
भवा०-"वहां क्यों खुलेगा?"
सत्या०-“इसीलिये तो मैंने महेन्द्रसे यह व्रत ग्रहण करवाना चाहा था और उसके लिये इतना तरद्द द उठाया है।"
जीवा०-"क्या महेन्द्रने व्रत ले लिया?"
सत्या०-"लिया नहीं है, लेगा। आज ही रातको उसकी दीक्षा होगी।"
जीवा०-"महेन्द्र के लिये क्या क्या तरद्द द उठाने पड़े, वह तो हमको मालूम ही नहीं। उसकी स्त्री-कन्या क्या हुई? वे कहां रखी गयी हैं? मैंने आज नदीके तीरपर एक कन्या पड़ी पायी थी। उसे मैं अपनी बहनको दे आया हूं। उसीके पास एक सुन्दरी स्त्री भी मरी पड़ी थी। कहीं वही महेन्द्रकी स्त्री तो नहीं थी? मुझे तो ऐसा ही शक हो रहा था।"
सत्या०-"हां, वे ही महेन्द्रकी स्त्री कन्या थीं।" भवानन्द चौंक उठे। अब वे समझ गये, कि मैंने जिस