भारतवर्ष की प्रकृति ३७६ । सिंघ में नहरों के बन जाने से लाखों एकड़ भूमि पर खेती होने लगी है। परन्तु राजपूताना, दक्षिण तथा अन्य स्थानों की भूमि पानी की कमी के कारण खेती के योग्य नहीं है। खेती के अयोग्य दूसरे प्रकार की ज़मीन वह है जिसमें ज़रूरत से ज्यादा पानी बना रहता है। हिमालय को तराई तथा दक्षिण बंगाल में इस प्रकार की भूमि पाई जाती है। जब वर्षा खूब जोरों से होती है तब भारतवर्ष में पानी के बहाव का प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाता है। वर्षा का पानी खेतों पर से होकर उसके गुणकारी तत्वों को बहा ले जाता है। इसी को धरती काटना ( Soil Erosion) कहते हैं। कभी कभी तो वर्षा का जल इस वेग से बहता है कि भूमि में गहरे नाले बन जाते हैं और सारा प्रदेश ऊबड़ खाबड़ और खेती के अयोग्य बन जाता है । फिर वर्षा का पानी इस तेज़ी से मिट्टी को काटता हुआ बहता है कि भूमि पानी को सोख ही नहीं पाती और दूसरी सतह-वितल ( Sub- soil ) में यथेष्ट पानी नहीं पहुँचता । इसका फल यह होता है कि धीरे धीरे उस प्रदेश के कुयें बेकार हो जाते, हैं। पानी के साथ सदैव मिट्टी कटती जाती है अथवा उपजाऊ शक्ति वहती जाती है, क्रमशः वह प्रदेश खेती के अयोग्य बन जाता है। पानी के बहाव पर अधिकार न होने से जो कटाव होता है उसके कई उदाहरण हैं। जमुना के दाहिने किनारे पर हजारों एकड़ बढ़िया ज़मीन बरबाद हो गई। क्योंकि पानी ने ज़मीन को काट कर बीहड़ बना दिया। यह खड्ड या बीहड़ जमीन ( Ravines ) पहले अच्छी और उपजाऊ जगह थी किन्तु पानी के मनमाने बहाव के कारण इसकी यह दशा हो गई है। प्रतिवर्ष इसका विस्तार बढ़ता जाता है। जहां पहले उपजाऊ खेत थे वहाँ अब खड्ड पाये जाते हैं। ऐसी बीहड़ जमीन का अधिक विस्तार प्रायद्वीप, मध्यभारत, ग्वालियर, मध्यप्रान्त और बम्बई में पाया जाता है । ऐसी बीहड़ जमीन में बांध बना कर अथवा जंगल लगा कर कटाव को रोका जाता है। चौथे प्रकार की खेती के अयोग्य भूमि असर (रेहर ) ज़मीन है। यह असर भूमि अवध, आगरा, पंजाब, सिंध के हिस्सों, तथा पश्चिम सीमा प्रान्त में पाई जाती है। दक्षिण के नीरा नहर के प्रदेश तथा बम्बई के केरा जिले में भी ऊसर ज़मीन पाई जाती है । परन्तु अधिकतर ऐसी भूमि सिंघ गंगा के मैदान और पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत में पाई जाती है। 5
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