-- आर्थिक भूगोल भारतवर्ष में जितना पिग आयरन तैयार होता है उतने की देश में खपत नहीं होती। प्रतिवर्ष ३१ प्रतिशत के लगभग पिंग आयरन विदेशों को मेजा जाता है। सन् १९३१ के पूर्व भारतवर्ष प्रतिवर्ष लगभग २० करोड़ रुपये की शंकर विशेष कर जावा से मँगाता था। देश में गृह- शंकर का धंधा उद्योग-धंधे के रूप में हाथ से शक्कर बनाने का धंधा ( Sugar प्रचलित था और कुछ कारखाने भी थे किन्तु देश की Industry ) मांग को पूरा करने के लिए बाहर से शक्कर मैंगानों पड़ती। टैरिफ बोर्ड की शिफारिस पर भारत सरकार ने शक्कर के धंधे को संरक्षण प्रदान किया जिसके फलस्वरूप आश्चर्यजनक गति से शक्कर के कारखाने स्थापित होने लगे और भारतवर्ष शीघ्र ही शकर की दृष्टि से स्वावलम्बी बन गया । शक्कर का धंधा इस बात का प्रमाणं है। कि यदि सरकार धंधों को संरक्षण और प्रोत्साहन दे तो देश में आश्चर्य जनक' तेजी से औद्योगिक उन्नति हो सकती है। यदि जनता को यह विश्वास हो कि सरकार धन्धों को प्रोत्साहन देगी तो पूंजी की कमी भी नहीं रहेगी। शक्कर के व्यवसाय में जो चालीस करोड़ रुपये की पूंजी लंगो . हैं वह इस बात का प्रमाण है। सूती वस्त्र की तरह शक्कर के धन्धे को भी यह सुविधा है कि देश में ही उसकी खपत के लिए विशाल क्षेत्र है। टैरिफ बोर्ड ने १९३१ में अनुमान किया था कि भारतवर्ष में ६० करोड रुपये की शक्कर की खपत होती है। क्रमशः देश में शक्कर की मांग चाय पीने की आदत के साथ साथ बढ़ती जा रही है। इस मांग पर शकर का धन्धा निर्भर है। शक्कर के धन्धे के लिए इस बात की नितान्त आवश्यकता है कि कारखाने . के समीप ही गन्ने की खेती हो जिससे गन्ना मिलने में कठिनाई. न हो। उत्तर भारत विशेषकर संयुक्तप्रान्त के उत्तरी भाग तथा बिहार में गन्ने की खेती कुछ क्षेत्रों में केन्द्रित है जिससे वहाँ शक्कर के कारखाने खड़े करने में विशेष सुविधा होती है। शक्कर के धन्धे को एक सुविधा यह भी है कि . उसके लिए बाहरी ईधन की बहुत कम आवश्यकता होती है | गन्ने को पेरने के बाद जो खोई बचती है उसा को बायलर में जलाकर शक्ति उत्पन्न की जाती है। किन्तु केवल खोई से ही काम नहीं चलता 'कुछ ईंधन कोयला या लकड़ी भी जलाना पड़ता है। उत्तर भारत में गाँवों में यथेष्ट ईधन मिलता है। इसके अतिरिक्त बहुत से कारखाने तराई के पास' हैं नहीं ईधन बहुत आसानी से मिल सकता है। यही कारण है शक्कर के । !. .. .
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