पृष्ठ:आलम-केलि.djvu/११०

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६३ मड़हो' मलीन कुंज खांबरो' खरो ई खोन, . 'मनु न लगत उदयसरे लगै आन सो। 'विरह विकल गोपी डारी हैं बै ठौर ठौर, मानौ अरसानी मागी थाकी फरि गान सो। 'आलम' कहै हो जात मनक न सुनी कान, मेरिये धनक' कछू चाला पायो प्रान सो। दूलह घराती लै कै राति ही सिधारो जैसे, ऐसो वा देख्यो माधो व्याह को बिहान सो ॥२२॥ । माती मद कोकिल उदासी मधुमास घोले, 'स्वाती रस तपति अबोली रहे चातकी। 'सेस' कहि भौरा भौरी फौलनि गुंजारे पुंज, ....., छाती तरकति सुनि जुवती को जात को। रास रस प्राव सुधि सरद सताये ना नो, पिरह पसन्त ब्रज घरी घरी घात की। चितवत चैत फी चै चाँदनी अचेत भई, जीती है जुन्हाई जिन फातिक की रात की ॥२२२॥ जाको प्रात पंकज प्रकास राते ताते लार्ग, तैसी कुमुदिनि ताहि ताती का हिताति है। 'सेघा फदि जाके यमनोदै में अदा नैन, माँगह की लाली में ते आनी दिलमाति है। महो = मकान । २- चासो-मांझर (जिसमें यान से देर 1) --उदयरा-उजड़ा शुधा ४-मना सन्द। ५...रक- भरत गरजा LAMA