पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/१०

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आवारागर्द


नहीं-मैं डाक्टर हूँ।" मैंने ढेला फेका।

उसने भुनभुनाकर होंठों ही मे कहा-'डाक्टर। फिर उसने सिर का पल्ला ठीक किया, हाथ जोड़कर उसी मधुर स्वर से नमस्ते किया, और उससे भी अधिक मीठे स्वर मे कहा-"आइए, भीतर आइए डाक्टर साहब!"

और, फिर हम एकदम मकान के भीतर। दरवाजे की कुंडी बंद कर दी गई। घर छोटा और साधारण था, पर साफ और सुरुचि-पूर्ण। कमरे में एक शतरजी विछी थी-कोने में पलँग था। दीवार से लगा एक लैंप टिमटिमा रहा था। शतरंजी पर बैठूँ या पलँग पर, यह निर्णय नहीं कर सका। उस पीली, धुंधली रोशनी मे मैंने फिर उसकी ओर देखा-एक दुबली-पतली, सुन्दर, छरहरी युवती थी। उम्र बीस से ऊपर होगी। बरबादी और वेदना की छाप उसकी आँखों और होठों पर थी।

उसने आगे बढ़कर, पलंग की ओर इशारा करके कहा" बैठिए।" सिर से टोपी उतारकर खूटी पर टाँग दी, बेत हाथ से लेकर एक कोने में रख दिया। फिर कहा "कोट उतारकर इतमीनान से बैठिए। इस वक्त कुछ गर्मी है, और आप बाहर से आए हैं। ठहरिए, खिड़की खोले देती हूँ। आप इतमीनान से बैठिए।"

मैं कोट उतारकर इतमीनान से बैठ गया। उसने खिड़कियाँ खोली, लैप जरा तेज़ किया, दो अगर-बत्तियाँ जलाईं, और चुपचाप पैरों के पास फर्श पर बैठ गई।

अभी दो मिनट भी न बीते थे कि ऐसा मालूम हुआ कि आवारागदी खत्म हो गई। मानो चिरकाल बाद शरीर और मन थकाकर अब घर लौटा हूँ, हालाँकि पृथ्वी के इस छोर से उस छोर तक मेरा कहीं घर था ही नहीं।

मेरा मुंह बद था। सोच रहा था, कौन है यह दुखिया,