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पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/११

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आवारागर्द


सुशीला स्त्री। इतनी मधुर, इतनी स्त्री-गुणों से विभूषित। परन्तु क्या उससे पूछूँ कि तुम कौन हो? इतनी आत्मीयता से परिपूर्ण स्वागत पाने पर भी। मैं चुप ही रहा। कभी उसे, कभी घर को घूर-घूरकर देखता रहा। उसने कहा-"चश्मा क्या हर वक्त लगाते हो! क्या रात मे बुरा नहीं मालूम होता?” उसने हाथ बढ़ाकर चश्मा आँखों से उतार लिया। गौर से आँखों को देखा-हथेली से आँखे दबाई। ओह! कितनी कोमल थीं वह हथेली।

मैंने दोनों हाथों से उसका हाथ थामकर कहा-"खूब मिलीं दोस्त।”

"तो क्या आप मुझे ढूंढ रहे थे?"

"अजी तीन दिन से।" मैंने अटकल-पच्चू कहा।

"आपको यह मालूम कैसे हुआ कि मैं आ गई हूँ।"

मैंने शान से कहा-“वाह, यह भी कोई बात है,

आप यहाँ आवे, और मुझे न मालूम हो।”

वह गौर से देखने लगी। शायद यह भॉपने के लिये कि यह इतनी आत्मीयता से बाते करनेवाला है कौन, और मैं उसके मनोभाव समझकर मुस्कराने लगा।

एकाएक मैने कहा-"वहाँ फर्श पर क्यों बैठी हो, यहाँ बैठो।"

मैंने हाथ पकड़कर खींचा। उसने मेरे घुटनों पर सिर रखकर वेदना से टूटे स्वर मे कहा-"तुमने सुना तो होगा, साहब अब नहीं रहे। एक महीना हुआ, हार्ट फेल हो गया। मरने से दो-चार दिन पहले तो चिट्ठी आई थी-पढ़ो तो, देखो, क्या लिखा है।"

वह लपक कर उठी, एक पुलिदा बहुत-सी चिट्ठियों का रूमाल मे बंधा था, उठाकर खोला-एक खत निकालकर पढ़ा-“मेरी