पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/११६

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वह कहे तो सुडौल और आरोग्यता की लाली से भरे हुए चेहरे पर आम की फॉक के समान बड़ी-बड़ी ऑखे और कोमल, नोकदार नाक बहुत ही शोभा पा रही थी। बालिका के शरीर मे यौवन ऊधम मचा रहा है, इसकी मानो उसे कुछ खवर ही न थी। वह अपने चिर-सहचर शैशव का पल्ला पकड़े, मानों उस दूकान पर चली आई थी। वह अपनी दादी के साथ कुछ कपड़ा लेने आई थी। उसे इस बात का खयाल भी न था कि उसका यह छलिया सह- चर चाहे जब उसे धोका दे सकता है, और अब उसी के भरोसे हाट-बाजार मे घूमना उसके लिये निरापद् नही है । बंसी ने उसकी एक झलक देखी। उसे ऐसा मालूम हुआ, जैसे उसकी एक पसली अपनी जगह से हिल गई हो। एक दर्द जो उसके जीवन की नई चीज़ थी, उसके हृदय मे पैदा हुआ। उसका सारा शरीर पसीने से भर गया। उसे ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे वह अभी अपनी जगह से गिर जायगा। वह लड़खड़ाता हुआ उठा, और बालिका के बिलकुल नज़दीक आकर बोला- "क्या चाहिए तुम्हें ?" उसके नथने फूल गए, और सॉस चढ़ गई। उसकी आँखों से ज्वाला की लहर-सी निकलने लगी। ऐसा प्रतीत हुआ, मानो उसे छू लेगा । बालिका बोली-नही । अपरि- चित युवक के ऐसे व्यवहार से घबराकर वह सहमी हुई-सी अपनी दादी की ओर देखने लगी। युवक ने बिलकुल पागल की तरह एक के बाद एक थानों का ढेर लगाना शुरू कर दिया। उसके हाथ मशीन की भॉति चल रहे थे । ढेर बढ़ता ही चला जा रहा था। उसकी सॉस के साथ ज्वाला निकल रही थी, और हृदय की धुकधुकी बेतरह बढ़ गई थी। उसके पिता और नौकर-चाकरों ने आश्चर्य-चकित होकर युवक की इस चेष्टा को देखा । वृद्धा ने क्रोध से लाल होकर, बालिका का हाथ पकड़कर कहा--"चल