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आवारागर्द


सबको सह गई थी। कोई मेरे राज को जानता न था। अंत में मैंने संकल्प किया--किसी तरह यह सब रुपया चुराकर उसे दे आऊँ। संकल्प दृढ़ होता गया, और मैं अवसर की ताक में लगा। अंततः एक दिन मुझे सफलता मिली। सब जेबर और रुपया लेकर मैं उसी भाँति झूमता-झामता चिर-परिचित मार्ग पर संध्या के धूमिल प्रकाश में आगे बढ़ रहा था। वह सब मैंने एक तरफ छिपा दिया, उसे मालूम नहीं हुआ। मैंने भी सोचा-- बस, यही अंतिम रात है। फिर अब और नहीं। उस दिन मैंने उसे जी भरकर प्यार किया, बहुत किया। अपना हृदय और आत्मा मैंने उसे दे दिया। पिछली रातों की भाँति यह रात भी बीत चली, और ऊषा के अलोक मे जब उसने हँसकर 'नमस्ते' कही, तब मैंने चुपचाप, नीरव भाव से चिर-विदा कहा।

मैंने लोटकर नही देखा, और चला। सेठ के डेरे की ओर नहीं, लंबी, बलखाती, पेचीली पहाड़ी सड़क पर, जो नीचे की दुनिया की ओर जा रही थी। उसी आवारागर्दी के आलम में, जिसमें नया आनंद और मस्ती का झरना झर रहा था। दिन बीता, और सध्या-समय एक चट्टी पर, बाहर पड़ी बेच पर, पड़ा, हुआ मैं बीती रातों को सोच रहा था। सब कुछ सपना-सा दीख रहा था। आँखे झरते ही वह आती, देखती, प्यार करती, सिगरेट पिलाती, माथा सहलाती, परंतु आँख खुलने पर सुदूर आकाश के टिमटिमाते तारे, टूटी बेंच और अपना एकाकी अवारागर्दी जीवन!

रास्ते में खाता, पीता, सोता, बैठता, अपनी चिर-अभ्यस्त आवारागर्दी से चला आ रहा था। एक दिन पुलिस ने मुझे पकड़ लिया। सेठजी साथ मे थे-उनके क्रोध का ठिकाना न था-बक रहे थे, और मुट्ठीयाँ बाँध रहे थे। मैं हंस रहा था। एक अंगूठी मेरी उँगली में थी। उसी से पकड़ा गया। उतारना