पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/५३

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५२ आवारागर्द थीं। अपने चारों ओर सन्नाटा देख कर पहले तो रजनी ज़रा घबराई, परन्तु फिर साहस कर के वह अपनी कुर्सी जरा आगे खींच कर बैठ गई। कौन खेल है दोनों कुछ क्षण इसी मे डूबे रहे, परन्तु थोड़ी ही देर में दोनों को अपना-अपना उद्देश्य याद आगया। खेल से मन हटा कर दोनों, दोनों को कनखियों से देखने लगे। एकाध बार तो नजर बचा गये, पर कब तक ? अन्त से एक बार रजनी खिलखिला कर हँस पड़ी। उसे हँसी देख दिलीप भी हँस पडे, परन्तु उसकी हँसी में फीकापन था। रजनी तुरन्त ही सम्हल गई । उसने कहा-- "क्यों हँसे मिस्टर दिलीप ?" "और तुम क्यों हँसी रज्जी ?” दिलीप ने जरा साहस करके कुर्सी आगे खिसकाई । रजनी सम्हल कर बैठ गई । उसने स्थिर अकम्पित वाणी में कहा तो यह सोच कर हॅसी कि तुम मन मे क्या सोच रहे हो वह मैं जान गई "सच, रज्जी, तो तुमने मुझे क्षमा कर दिया ?" वे आवेश मे आकर खड़े होकर रजनी की कुर्सी पर झुके। उन्हें वहीं रोक कर रजनी ने कहा "क्षमा करने मे तो कुछ हर्ज नहीं है दिलीप बाबू, मगर यह तो कहो कि क्या तुम उसी खत की बात सोच रहे हो ? सच कहो, तुमने जो आज खत मे लिखा है क्या वह सच है ?" दिलीप घुटनों के बल धरती पर बैठ गये, जैसा कि वे बहुधा सिनेमा मे देख चुके थे। उन्होंने भावपूर्ण ढङ्ग से दोनों हाथ पसार कर कहा-"सचमुच, रज्जी, मैं तुम्हें प्राणों से बढ़ कर प्यार करता हूँ।" "प्राणों से बढ़ कर १ यह तो बडे ही आश्चर्य की बात है दिलीप बाबू । इस पर विश्वास करने को जी नहीं चाहता।"