पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/५४

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मरम्मत ५३ "रज्जी विश्वास करो, तुम कहो तो मैं अभी यहाँ से कूदकर अपनी जान दे दूं।" "इससे क्या फायदा होगा सिस्टर दिलीप, उल्टे पुलिस मुझे हत्या करने के जुर्म मे गिरफ्तार कर लेगी। परन्तु मुझे तो यह ताज्जुब है कि तुम दो ही दिन से मुझे इतना प्रेम कैसे करने लग गये " "मै तो पहली नजर ही में तुम पर मर मिटा था।" "तुमने क्या किसी और स्त्री को भी प्यार किया है ?" "नहीं-नहीं, कभी नही, इस जीवन मे सिर्फ तुम्हें।" "क्यों, क्या तुम्हें कोई स्त्री मिली ही नही ?" "तुम सी एक नहीं, रज्जी।" "यह तो और भी आश्चर्य की बात है, कलकत्ते मे, बनारस मे, इलाहाबाद मे, लखनऊ मे, पटने मे, कही भी मुझ सी कोई स्त्री है ही नहीं" "नहीं-नही, रज्जी, तुम स्त्री-रत्न हो।" "जापान में, चीन मे, इङ्गलेण्ड मे, जर्मनी मे, अमेरिका मे, अरे । तुम तो सब देश की स्त्रियों से वाकिफ होंगे?" "रज्जी, तुम सब मे अद्वितीय हो।" सुझे इससे बहुत शक है मिस्टर दिलीप; एक काम करो। अभी यह प्रेम मुल्तवी रहे । तुम एक बार हिन्दुस्तान के सब शहरों मे घूम फिर कर जरा अच्छी तरह देख-भाल आओ। मेरा तो ख्याल कि तुम्हें मुझ से अच्छी कई लड़कियां मिल जावेगी। दिलीप महाशय ने ज़रा जोश मे आकर कहा-"रज्जी, तुम्हारे सामने दुनिया की स्त्री मिट्टी हैं।" "मगर यह तुम्हारा अपना वाक्य नहीं मालूम देता, यह तो पेटेन्ट वाक्य है। देखो मै ही तुम्हे दो-तीन लड़कियों के पते ४