पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/५५

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५४ रह आवारागर्द बताती हूँ। एक तो इलाहाबाद के क्रास्थवेट मे मेरी सहेली है। दूसरी......" दिलीप ने बात काटते हुए कहा “प्यारी रज्जी, क्यों दिल को जलाती हो, इस दास पर रहम करो। मै तुम्हारा बेदाम का चाकर हूँ। अपने नाजुक और कोमल हाथों का ।" कहते कहते उन्होंने रजनी के हाथ पकड़ने को हाथ बढ़ाया । इसी बीच रजनी ने तड़ाक से एक तमाचा जो महाशय के मुंह पर जड़ा तो उजाला हो गया पैरों की जमीन निकल गई। वे मुँह बाये वैसे ही बैठे गये। रजनी ने स्थिर गम्भीर स्वर मे कहा “मिस्टर दिलीप, मै तुम्हारी गलती सुधारना शुरू करती हूँ। देखो, अब तो तुम समझ गये कि ये हाथ उतने नाजुक ओर कोमल नहीं है जितने तुम समझे बैठे हो । कहो तुम्हारी आंख बची या फूटी ? मैने जरा बचा कर ही तमाचा जड़ा था। अब दूसरी ग़लती भी मै सुधारती हूँ। देखो सामने जो वह यूरोपियन लड़की बैठी है वह मुझसे हजार दर्जे अच्छी है या नही । तुम दुनिया की कहते हो, मै तुम्हें यही दिखाये देती हूँ; कहो, है या नही ?" मिस्टर दिलीप की सिट्टी गुम हो रही थी, वे चेष्टा करने पर भी नहीं बोल सके। रजनी ने, धीमे किन्तु कठोर स्वर मे कहा- “बोल रे अधम, वञ्चक, लम्पट, पढ़े-लिखे गधे, मेरी बात का जवाब दे, वरना अभी चिल्ला - कर सब आदमियों को मैं इकट्ठा करती हूँ।" दिलीप ने हाथ जोड़ धीमे स्वर मे कहा--"मुझे माफ कीजिये श्रीमती रजनी देवी, मुझे माफ कीजिये।" रजनी ने घृणा से होठ सिकोड़ कर कहा--"अरे, तुम्हारा तो स्वर ही बदल गया, और टोन भी। अब तुम मुझे 'तुम' कह