पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/५९

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आवारागर्द था, स्क्रीन में धमा-चौकड़ी हो रही थी, इस धूम-धाम ने और पीछे की सीट के सन्नाटे ने इस 'रजनीकाण्ड' की ओर किसी का भी ध्यान आकृष्ट नही होने दिया। थोड़ी देर मे इन्टरवेल हो गया, वत्तियाँ जल गई। प्रकाश हो गया। रजनी ने कहा--"मै घर जाना चाहती हूँ, दिलीप बाबू, आप चाहें तो यही ठहर सकते हैं।" . दिलीप ने आज्ञाकारी नौकर की भॉति खडे होकर कहा- "चलिये फिर ।" रजनी चुपचाप चल दी। (७) दूसरे दिन तमाम दिन मिस्टर दिलीप कमरे से बाहर नहीं निकले, सिर-दर्द का बहाना करने पड़े रहे । भोजन भी नहीं किया। अभी उन्हें यह भय बना हुआ था कि उस वाधिनी ने यदि राजेन्द्र से कह दिया तो गजव हो जायगा। सन्ध्या समय रजनी ने उनके कमरे मे जाकर देखा कि वे सिर से पैर तक चादर लपेटे पड़े हैं। रजनी ने सामने की खिड़की खोल दी और एक कुर्सी खीच ली। उस पर बैठते हुये उसने कहा--"उठिये मिस्टर दिलीप, दिन कव का निकल चुका और अब छिप रहा है।" दिलीप ने सर निकाला--उनकी ऑखे लाल हो रही थीं, नालूम होता था, खूब रोये हैं । उन्होंने भर्राए हुए गले से कहा- "मै आपको मुँह नहीं दिखा सकता, मै अपनी प्रतिष्ठा की चर्चा करने का साहस नही कर सकता पर आप अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के लिये वचन दीजिये कि आप घर मे किसी से भी बात नहीं कहेंगी।"