"मै तो तुम्हें क्षमा कर चुकी दिलीप।"
"यह कहिए किसी से भी नही कहेंगीं।"
"अच्छा, नही कहूँगी, उठो।"
"किसी से भी नही।"
"किसी से भी नही।"
"भैया से भी नही।"
"अच्छा, अच्छा, भैया से भी नहीं।"
"और उस दुष्टा दुलारी से भी नहीं।"
रजनी हँस पड़ी, बोली—"अच्छा, उससे भी नही। अब उठो।"
"वह जब मुझे देखती है मुँह फेर कर हँस देती है।"
"वह शायद समझती है, तुम जैसा पुरुष पृथ्वी पर और नही हैं। "
"अब जब आप क्षमा कर चुकीं, फिर ऐसी बात क्यों कहती हैं।"
रजनी हँस कर चल दी।
दूसरे दिन राजेन्द्र ने आने पर देखा कि दिलीप अपना बोरिया-बसता बाँधे जाने को तैयार बैठे है। मुँह उतरा हुआ है, और वे बुरी तरह घबराये हुए हैं। राजेन्द्र ने हँस कर कहा—"मामला क्या है? बुरी तरह परेशान हो रहे हो।"
"तार आया है माता जी सख्त वीमार हैं। जाना पड़ रहा है।"
"देखे कैसा तार है। अभी तो २-४ दिन भी नहीं हुये।"
दिलीप तार के लिये टाल-टूल करके घड़ी देखने लगे। बोले—"अभी ४० मिनिट हैं गाड़ी मिल जायगी।"
दिलीप के जाने की एकाएक तैयारी देखकर राजेन्द्र परेशान से हो गये। उन्हें दिलीप की टाल-टूल से सन्देह हुआ कि शायद घर मे कोई कुछ अप्रिय घटना हुई है।
उन्होंने रजनी को बुलाकर कहा—"रजनी, दिलीप जा रहे हैं मामला क्या है?"