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पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/७५

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तसवीर

बहस का मुद्दा यह था कि फ़ोटोग्राफी चाहे भी जितनी उन्नति करले, यह चित्रकला नहीं कहला सकती। चित्रकला एक महान्क ला हैं। कला विकास मस्तिष्क से होता हैं जिसमे जीवित विचार होते हैं, मशीन से नहीं, जिसमे सिर्फ छाया ही को अङ्कित किया जा सकता हैं। फ़ोटोग्राफी तो सिर्फ उन चीजों की एक मुर्दा नकल हैं जिन्हें आँखों से देखा जा सकता हैं, परन्तु चित्रकला चलते-फिरते विचारों की रूप रेखा हैं। एक फ़ोटोग्राफर उन्हीं चीजों की छाया उतार सकता है जिन्हें अपनी आँखों से देख सकता हैं; परन्तु सच्चा चित्रकार वह हैं जो विचारों की तस्वीर खींचता हैं। वे विचार जिनकी कोई मूर्ति नहीं हैं, सिर्फ चित्र- कार की कूची से ही जैसे अवतार बन कर आँखों के सामने आते हैं और तब हम देखते हैं कि उसमें अमूर्त को मूर्त बनाने का गुण हैं, जो केवल ईश्वर में हैं।

मिस्टर भरूँचा जोश में आकर ये बातें कह रहे थे। उनके हाथ मे चाय का प्याला था। बीच-बीच में वह उसकी चुस्की भी लेते जाते थे। अपनी बात पूरी करके उन्होने गर्म-गर्म चाय