पर बैठे हुए गुटके मुँह में लिए बोल उठे—गोरख जागा और मुछंदर भागा। एक आँख की झपक में यहाँ आ पहुँचता है जब दोनों महाराजों में लड़ाई हो रही थी। पहले तो एक काली आँधी आई; फिर ओले बरसे; फिर टिड्डी आई। किसी को अपनी सुधी न रही। राजा सूरजभान के जितने हाथी-घोड़े और जितने लोग और भीड़ भाड़ थी, कुछ न समझा कि क्या किधर गई और उन्हें कौन उठा ले गया। राजा जगतपरकास के लोगों पर और रानी केतकी के लोगों पर क्योड़े को बूँदों को नन्हीं-नन्हीं फुहारसी पड़ने लगी। जब यह सब कुछ हो चुका, तो गुरूजी ने अतीतियों ने कहा—"उदैभान, सूरजभान, लक्ष्मीबास इन तीनों को हिर हिरन बना के किसी बन में छोड़ दो; और उनके साथी ह उन सभों को तोड़ फोड़ दो: "जैसागुरूजी ने कहा, झटपट वह किया। बिपत का मारा कुँवर उभान और उसका बाप वह राज सूरजभान और उसकी माँलछमोबास हिरन हिरनी बन गए। हरी घास कई बरस तक चरते रहे; और उस भीड़ भाड़ का तो कुछ थल बेड़ा न मिला, किधर गए और कहाँ थे। बस यहाँ की यह रहने दो। फिर सुनों। अब रानी केतकी के बाप महाराजा जगत परकास की सुनिए। उनके घर का घर गुरूज़ी के पाँव पर गिराऔ सबने सिर झुकाकर कहा—"महाराज, यह आपने बड़ा काम किया। हम सबको रख लिया। जो आज आप न पहुँचते तो क्या रहा था। सब ने मर मिटने की ठान ली थी। इन पापियों से कुछ न चलेगी, यह जानते थे। राज-पाट हमारा अब निछावर करके जिसको चाहिए, दे डालिए; राज हम से नहीं थम सकता सूरजभान के हाथ से अपने बचाया। अब कोई उनका चर्चा चंद्रभान चढ़ आवेगा तो क्योंकर बचना होगा? अपने आप में तो सकत नहीं फिर ऐसे राज का फिट्टे मुँह कहाँ तक आपके
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