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रानी केतकी की कहानी

बिखरे जी को न कर इकट्ठा।
एक घास का ला के रख दे गट्ठा॥
हरियाली उसी की देख लूँ मैं।
कुछ और तो तुझको क्या कहूँ मैं॥
इन आँखों में है फड़क हिरन की।
पलकें हुई जैसे घास बन की॥
जब देखिए डबडबा रही हैं।
ओसे आँसू की छा रही हैं॥
यह बात जो जी में गड़ गई है।
एक ओस सी मुझ पै पड़ गई है॥

इसी डौल जब अकेली होती तो मदनबान के साथ ऐसे कुछ मोती पिरोती।


रानी केतकी का चाहत से बेकल होना और मदनवान
का साथ देने से नाहीं करना और लेना उसी भभूत
का, जो गुरूजी दे गए थे, आँख मिचौवल
के बहाने अपनी माँ रानी
कामलता से।

एक रात रानी केतकी ने अपनी माँ रानी कामलता को भुलावे में डालकर यों कहा और पूछा—'गुरूजी गुसाई' महेंदर गिर ने जो भभूत मेरे बाप को दिया है, वह कहाँ रक्खा है और उससे क्या होता है?" रानी कामलता बोल उठी—"तेरे वारी, तू क्यों पूछती है।" रानी केतकी कहने लगी—"आँख मिचौबल खेलने के लिये चाहती हूँ। जब अपनी सहेलियों के साथ खेलूँ और चोर बनूँ तो मुझको कोई पकड़ न सके।" महारानो ने कहा—"वह खेलने के