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रानी केतकी की कहानी

चुपके चुपके कराहती थी।
जीना अपना न चाहती थी॥
कहती थी कभी अरी मदनबान।
है आठ पर मुझे वही ध्यान॥
याँ प्यास किसे किसे भला भूख।
देखूँ वहीं फिर हरे-हरे रूख॥
टपके का डर है अब यह कहिए।
चाहत का घर है अब यह कहिए॥
अमराइयों में उनका वह उतरना।
और रात का साँय-साँय करना॥
और चुपके से उठके मेरा जाना।
और तेरा वह चाह का जताना॥
उनकी वह उतार अँगूठी लेनी।
और अपनी अँगूठी उनको देनी॥
आँखों में मेरे वह फिर रही है।
जी का जो रूप था वही है॥
क्यों कर उन्हें भूलूँ क्या करूँ मैं।
माँ-बाप से कब तक डरूँ मैं॥
अब मैंने सुना है ऐ मदनवान।
बन-बन के हिरन हुए उदयभान॥
चरते होंगे हरी हरी दूब।
कुछ तू भी पसीज सोच में डूब॥
मैं अपनी गई हूँ चौकड़ी भूल।
मत मुझको सुँघा यह डहडहे फूल॥
फूलों को उठाके यहाँ से लेजा।
सौ टुकड़े हुआ मेरा कलेजा॥