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पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/१०

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इंदिरा ।

सब जाते हैं खाली पेट एक मुट्ठी भात की खोज में सो ये बेचारे ज़रा सा मैले अंगोछे को घुमा कर हवा खाने लगे, यह देख मुझे क्रोध हुआ ! धिक्कार है, इस चढ़ी जवानी को !

यही सोचते सोचते मैंने क्षण भर के पोछे अनुभव कर के जाना कि साथ के लोग कुछ दूर चले गये हैं। तब मैं साहस से थोड़ा सा द्वार खोलकर बावली देखने लगी। मैंने देखा कि सब बाहक दूकान के सामने एक बटवृक्ष के नीचे बैठे हुए जलपान कर रहे हैं। वह स्थान मुझ से प्रायः डेढ़ बीघा दूर था। मैंने देखा कि सम्मुख प्रति निबिड़ मे की नाई विधा दीघी फैली है, उस के चारों ओर पर्वतश्रेणीतुल्य ऊंचे और सुकोमल हरी हरी घासों के आवरण से शोभायमान पहाड़ हैं, पहाड़ और जल के बीच- वाली विस्तृतभूमि में बटवृक्ष की श्रेणी रही है। पहाड़ पर अनेक गौ बछड़े चरते और जल के ऊपर जलचर पक्षीगण क्रीड़ा करते हैं। मन्द मन्द मारुत के मृदु मृदु हिलोरे से स्फटिक भंग होते हैं। छोटी छोटी लहरों के धक्के को कभी कभी कमल के फूल, पत्ते और सेवार हिलते हैं। मैं ने देखा कि मेरे दरवान लोग जल में उतर कर स्नान करते हैं—उन लोगों के अङ्ग हिलाने से ठोकर खा कर श्यामल जाल में श्वेत मोती के हार बिखरे जाते हैं।

मैंने आकाश की ओर निहार कर देखा कि कैसी सुन्दर नीलिमा है ! जैसा सुन्दर श्वेत मेघ समूहों का परस्पर भर्ति वैचित्र्य है ! और कैसी सुन्दर आकाशमण्डल में उडनेवाले छोटे छोटे पक्षियों की उस नीलिमा में फैली हुई कृष्णविन्दु समहो की शोभा है। मैंने मन ही मन कहा कि क्या ऐसी कोई विद्या