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पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/११

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द्वितीय परिच्छेद ।

नहीं है कि जिस से मनुष्य पक्षी हो सके? क्योंकि यदि पखेरू हो सकती तो मैं भी उड़कर, जिसे बहुत दिनों ले चाहती हूं, हल के पास पहुँच जाही!

फिर मैंने सरोवर की ओर निहार कर देखा—इस बार मैं कुछ भयभीत हुई। क्योंकि मैं ने देखा कि बाहकों का छोड़ कर और मेरे सा के सभी आदमी एकदम स्थान के लिये जल में उतर गये हैं। मेरे संग दो स्त्रियों थी, उन में एक ससुरार को और दुसरी पीडर (नैहर) की; सो वे दोनों भी जल में उतर गई थीं। यह देख मेरे मन में कुछ भय हुआ क्योंकि समीप कोई नहीं —स्थान बुरा है, लोगों ने अच्छा नहीं किया । पर क्या करती ? मैं कुलबधू होने से किसी को पुकार भी न सकी।

इसी समय पालकी की दूसरी ओर एक शब्द हुआ। मानों बटवृक्ष की शाखा के ऊपर से कोई भारी वस्तु गिरी । तब मैं ने इस ओर का थोड़ा सा किवाड खोला। खोलते ही एक काला साविकटाकार मनुष्य देखा। यह देखते ही मारे भय के मैं ने उधरवाले द्वार को बन्द कर लिया, पर अभी समझ लिया कि इस समय द्वार का खुला रखना हो अच्छा है। पर फिर से मेरे द्वार खोलने के पहले ही और एक आदमी पेड़ के ऊपर से कूद पड़ा। देखते देखते और एक जन, फिर एक जन, इसी तरह चार जने प्रायः एक साथ ही वृक्ष पर से कूद पालकी कन्धे पर उठा कर उर्द्धश्वास से भागे। यह देखते ही मेरे दरबान लोग "कौन है रे ? कौन है रे!" चिल्लाते हुए जल में निकल कर दौड़े