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पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/१००

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इन्दिरा

घूंघरवाले बालों की लटें अभागे मर्दुए के गाल में छुलाकर उसे रोमांचित कर सकती हो―पर यदि कुछ नहीं कर सकती हो तो केवल यही कि उस (पति के पैरों को लेकर दाबना और उसके हुक्के की चिलम का फूंक कर सुलगाना!!!” बस जो निगोड़ी मुझे ऐसी बात कहा चाहे उस मुंहझौंसी को चाहिये कि वह मेरे इस जीवन वृतान्त को कदापि न पढ़।

तुम पांच जनी पांच तरह की हो-पुरुष पाठकों की बातों पर मैं ध्यान नहीं देती, क्योंकि वे बेचारे इस शास्त्र की बातें क्या जानें? सो तुम लोगों को मैं असल बात समझा देती हूं। सुनो-यो मेरे स्वामी हैं―पति की सेवा ही से मुझे परम आनन्द है―इसीलिये―बनावटी नहीं,―बरन सारे अंतष्करण से मैं प्यार का बर्ताव करती थी। मैं मनहीमन यह सोचती थी कि मेरे प्राणनाथ यदि मुझे ग्रहण न करेंगे तो मुझे सारी पृथ्वी का जो सार सुख है, वह कभी भी न प्रान्त हुआ और आगे से कभी नहीं होगा तो फिर इन्ही बाई दिनों तक तो उन सुखों का इच्छा भर भोग कर लूं। बस इसीलिये जी जान से मैं पतिसेवा करती थी। किन्तु इस से मैं कितनी सुखी होती थी, यह बात तुम लोगों में कोई तो समझ जायगी और कोई नहीं समझेगी।

अब मैं दया कर के अपने पुरुष पाठकों को केवल हंसी चितवन के तत्त्व को समझाती हूं―सो बुद्धि केवल कालिक की परीक्षा देतेही सीमा-प्राप्त में पहुंच जाती है, जो बुद्धि केवल वकालत कर के दश रुपये पैदा करनेही से विश्वाजयिनो प्रतिमा कहलाने लगती है, जिस बुद्धि के प्रभाव ही से राजद्वार मे सम्मान होता है, इस बुद्धि के भीतर पति भल्कि तस्व का प्रवेश कराना