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पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/९९

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सोलहवां परिच्छेद।

नीच औरतों के हथियार हैं। किन्तु मैंने पहिले दिन प्रेम से उनके साथ बातें की; दूसरे दिन प्रेम के लक्षण दिखलाये; तीसरे दिन उन का गृहकार्य करना प्रारंभ किया, जिस में उन के खाने, पीने, सोने, नहाने, धोने, आदि में किसी बात की फसर न रहे और जिसमें वे हर तरह से सुखी रहें, वही काम मैं करने लगी; मैं अपने हाथ से उन की रसोई बनाती; यहां तक कि उन के लिये खरका अपने हाथ से बना रखती; और उनकी ज़रा भी तबीयत सुस्त होती तो सारी रात जाग कर उन की सेवा करती।

अब मेरा हाथ जोड़ कर आप लोगों से यह निवेदन है कि आप लोग अपने मन सें यह न समझें मेरी ये सभी बातें बनावटी थीं। इन्दिरा के मन में इतना कि वह केवल खाने कपड़े की लालच से, या पति के धन से धनेश्वरी होने को लालसा से यह सब नहीं कर सकती; पति के लोग से बनावटी प्रेम मैं नहीं झनका सकती थी; इन्द्र की इन्द्राणी होने की लालच से भी ऐसा नहीं कर सकती; प्राणपति के वश करने की इच्छा से मुस्कुराहट और इशारेबाज़ी की भरमार कर सकती है, किन्तु उन्हें मोहने के लिये बनावटी प्रेम नहीं झलका सकती। विधाता ने ऐसी मिट्टी से इन्दिरा को बनायाही नहीं है कि वह अपने प्राणेश्वर को नक़ली प्रीति से मोहे। बस जो अभागिन यह बात न समझ सकेगी वह नरक की कीड़ी मेरे लिये यों कहेगी कि “हंसी और कनखी मटकी के फंदे फैला सकती हो, जूड़ा खोल पर फिर उसे बांध सकती हो और बातों के छल से