वे―तुम कौन हो?
मैं―सो तो कह चुकी हूं कि पीछे बताऊंगी। पर मैं मनुष्य नहीं हूँ!
वे―तुम ने कहा था कि ‘मेरा नैहर कालीदीघी है।’ तो कालोदीघी के लोग यह सब बात जान भी सकते हैं। भला यह तो कहो―“हरमोहनदत्त के घर का सदर दरवाज़ा किस रुख का है?”
मैं―दक्खिन मुंह का। एक बड़े फाटक के दोनों बग़ल दो बड़े बड़े सिंह बने हैं।
वे―भला, उन के कै लड़के हैं?
मैं―एक।
वे―नाम क्या है?
मैं―बसन्तकुमार।
वे―उन्हें बहिन कै हैं?
मैं―आप के विवाह के समय दो थीं।
वे―नाम क्या था?
मैं―इंदिरा और कामिनी।
वे―उन के घर के पास कोई पुष्करिणी है?
मैं―है। उस का नाम ‘देवोदीघी’ है। उस में बहुत कमल होते हैं।
वे―हां, यह मैंने देखा था। जान पड़ता है कि तुम कभी महेशपुर में रही होगी। इसमें अचरज ही क्या है? तभी तो इतना जानती हो, भला और तो कुछ वहां की बातें कहो? बतलाओ, इंदिरा के विवाह का संप्रदान कहां हुआ था?