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अठारहवां परिच्छेद।

एक गुलचा लगाया, इस से जब वह कुछ उहास सी हुई तो आपने उस का गाल चूम लिया था। अपने प्राणनाथ के आगे इतना कहते कहते मेरा सारा शरीर एक अपूर्व आनन्द के रस में ग़ोते भारने लगा―क्योंकि मेरे जीवन में पहिला चुंबन वहीं था। इसके अनन्तर फिर सुभाषिणी की भी हुई वह सुभाषिणी हुई जिसका हाल ऊपर लिख आई है। इन दोनों के बीच में घोरतर अनावृष्टि हो बनी रही, जिस से मेरा हृदय सरोवर सूख कर फांक फांक हो गया था।

मैं तो इन बातों को सोचती थी, और क्या देखती थी कि मेरे प्राणप्यारे ने घोरे धीरे तकिये के आर अपना सिर रख कर आंखें बंद कर लीं। तब मैंने कहा―

“कहिये और कुछ पूछियेगा?”

इस पर उन्होंने कहा―“नहीं। बस, यातो तुम साक्षात् इंदिरा हो, या कोई मायाविनी।”

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उन्नीसवां परिच्छेद।

विद्याघरी!

मैंने देखा कि इस समय मैं अनायास ही अपना परिचय देखकती हूं क्योंकि मेरे साथ प्राणपति के निज मुख से ही मेरा परिचय कहा गया, किन्तु मैंने प्रतिज्ञा की थी कि थोड़ा भी संदेह रहते हुए मैं अपना परिचय न दूंगी। इसी से कहा―