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पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/१२०

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इन्दिरा।

‘अब मै अपना परिचय दूंगी। सुनिये, कामरूप देश की मैं रहनेवाली हूँ। मैं वहां पर आद्दाशक्ति के महामन्दिर के पासही रहती हूँ। लोग हमलोगों को डाकिनी कहते हैं, किन्तु हमलोग डाकिनी नहीं हैं। हम लोग विधाधरी है। मैंने महामाया के आचरणों में कोई अपराध किया था, इसी से शायग्रस्त हो इस मनुष्य के चोले को पाया। सो रसोईदारी और कुलटायन भी भगवती के उस शापही के भीतर समझना चाहिये। इसी लिये यह सब भी मुझे भोगना पड़ा। अब इस शाप से छुटकारा पाने का समय मुझे प्राप्त हुना है, मैंने जब जगदंबा को स्तुति से प्रसन्न किया तो उन्होंने मुझे यह आशा दी कि ‘महाभैरवी के दर्शन करते हो तू शाप ले छुट जायगी’।”

उन्होंने पूछा―“वह कहा पर है?”

मैंने कहा―“महाभैरवी का मन्दिर महेशपुर में आप की ससुर के उत्तर ओर है। वह ठाकुरबाड़ी आप के ससुरारवालों ही की हैं। घर के पिछवाड़े वाली खिडकी उस मन्दिर में जाने की राह है। इसलिये अब हमलोग महेशपुर चलें।

उन्होंने कुछ सोचकर कहा―“सो जान पड़ता है कि तुम मेरी इंदिराही होगी। अच्छा! कुमुदिनी यदि इंदिरा हो जाय तो फिर क्या इस सुख का पारावार है? यदि ऐसा हो तो फिर इस संसार में मेरे बराबर कौन सुखी हो सकता है?”

मैं―मैं चाहे कोई होऊं, पर महेशपुर चलने से ही सारा टंटा मिट जायेगा।

वे―तो चलो, कलही यहां से यात्रा करें। मैं तुम्हें कालीदीघी पारकर, महेशपुर भेज कर अकेला अपने घर जाऊंगा। और दो