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पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/१८

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इन्दिरा
 

पेड़ से थोड़े पत्ते तोड़, तिनके से गांध इसे अपनी कमर और गले में डाल कर लश्वर से बांध लिया। इस तरह लज्जा के बचने का तो उपाय हुआ, पर मैं पगली की भांति जंचने लगी। फिर उसी पथ से मैं चली, जाते जाते गौ का शब्द सुन पड़ा। तब मैं ने समझा कि ग्राम निकट है।

किन्तु अब तो चल नहीं सकती, क्योंकि कभी चलने का अभ्यास तो था ही नहीं। तिस पर सारी राम का जागरन, रात का यह भसह्य शारीरिक और मानसिक कष्ट और भूख प्यास। में श्रान्त होकर गदंडी के पास ही एक पेड़ तले पढ़ रही। और पढ़ते ही नीन्द में सो गई।

नींद में स्वप्न देखा कि मैं मेघ के ऊपर चढ़ी हुई इन्द्रलोक में ससुहार गई हूँ। स्वयं रतिपति मानो मेरे दुलह हैं और रति देवी मेरी सौतिन;―पारिजात के लिये मैं सौत से झगड़ा कर रही हूँ। इसको ही में किसी के स्पर्श से मेरी आँख खुल गई! मैं ने देखा कि एक युवा पुरुष है, देखने से जान पड़ा कि वह कोई नीच जाति का कुलो मज़दूर सा है जो मेरा हाथ थाम्ह कर मुझे खींचता है। सौभाग्यवश एक लकड़ी में पास ही पडी थी, उसे उठा और धुमा कर उस पापी के सिर में मैंने मारी। न जाने कहां से उस समय मुझ में इतना बल आ गया―वह व्यक्ति अपना माथा थाम्ह कर सांस रोक कर माना।

फिर मैं ने उन सभी को छोड़ा और जो अपमा बोझ डालकर चलना आरम्भ किया। बहुत दूर चलने पर एक बुढ़िया से भेंट हुई, वह एक गौं को हांक कर लिये जाती थी।