पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/१७

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चौथा परिच्छेद।

बाएँ हाथ में एक टुकड़ा लोहा भर है, किन्तु दाहिने हाथ में कुछ नहीं। तब रोती एक लता तोड़कर मैं ने दाहिने हाथ में बांधी।

इस के अनन्तर चारों ओर देखती देखती मैं ने देखा कि जहां पर मैं बैठी हूँ, वहां के अनेक वृक्षों की डालियां कटी हैं, कोई २ पेड़ जड़ मूल ले कटे हैं, केवल उन की जड़ भर बाक़ी है। मैंने सोचा कि यहां पर ऋकड़िहारे आया करते हैं, तो ग्राम में जाने का पथ है। दिन का उंजाला देख कर फिर मेरी जीने को इच्छा हुई―फिर मन में आशा का उदय हुआ, क्योंकि उन्नीस वर्ष से अधिक तो मेरा बयस थाही नहीं! तब खोज लगाते लगाते मैं ने एक मति अस्पष्ट पथ की पगदंडी देखी, उसी को घर कर मैं चल खड़ी हुई। आते जाते उस पथ की रेखा और भी स्पष्ट हो चली, मुझे भरोसा हुआ कि गांव मिलेगा।

तब और एक विपद मन में जाग उठी―मैं विकारा कि ग्राम मे न जाना चाहिए। क्योंकि जिस चिथड़े कपड़े को डांकुओं ने मुझे पहिरा दिया था, उस से किसी तरह कमर से ले कर ठेहुन तक ढंकता था, और मेरी छाती पर एक चिट्ट लत्ता भी न था! तो किस तरह बस्ती में जाकर लोगों को अपना काला मुंह दिखाऊ; इस लिये जाना न चाहिये। और यहीं मर जाना चाहिये, यही मैं ने स्थिर किया।

किन्तु पृथ्वी को सूर्य की किरणों से स्वर्णमयी देख कर, पक्षियों का कलरव सुन कर और लत्ताओं में फूलों के गुच्छों को झूमते हुए देख कर फिर मेरी जीने की इच्छा हुई। तब मैं ने