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इन्दिरा ।

चलो सखीरी ! जलभर लाऊं,
जलभर लाऊं रानी!
अमला ।
गोलबांध के घूमै बालक,
छोड़ि सबै खिलवाड़।
बुढ़िया ठिलिया बिछिलाहट में,
गिरती खाय पछाड़॥
(हम तो)मदमाती हवै मधुर मंद हंसि,
करूं छडे झनकार—
मैं तो करूं छुड़े झनकार,
सखोरी ! करूं छड़े झनकार ॥
दोनों जनी ।
चलो सखीरो! जलभर लाऊं,
जलभर लाऊं रानी!

बालिकाओं के छिड़के हुए रस से यह प्राण कुछ शीतल हुआ। मुझे मन लगा कर यह गीत सुनती देखकर बाबू कृष्णदास की स्त्री ने मुझ से पूछा—

"उस ख़ाक सरीखे गीत को वों कान खड़े कर क्यों सुन रही हो?"

मैं ने कहा,—"इस में बुराई क्या है ?"

बाबू कृष्णदास की स्त्री—"इन छोकड़ियों की मौत हो, और क्या! छड़े झनकानेवाला गीत भी किसी गीत की गिनती में है?"