पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/२७

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पांचवा परिच्छेद ।

मैं ने कहा,--"यही गीत चाहे सोलह बरस की लड़की के मुंह से अच्छा न लगता, किन्तु सात बरस की छोकड़ी के हुँह से बड़ा मीठा लगता है। जवान मर्द के हाथ के थप्पड़ घूंसे नहीं भाते किन्तु तीन बरस के बालक के हाथ के बड़े मीठे लगते हैं।"

यह सुन के कुछ बोलीं तो नहीं किन्तु मुंह लटका कर बैठी रहीं। मैं सोचने लगी। मैं ने सोचा कि ऐसा भेद क्यों है ? एक ही वस्तु अवस्थाभेद ले हो तरह की क्यों दिखलाई देती है? जो दारिद्र को दिया जाय उस से पुण्य होता है, और वही यदि धनवान व्यक्ति को लिया जाता है तो खुशामद में क्यों गिना जाता है। जो सत्य धर्म का प्रधान अंग है, वही अवस्थाभेद ले आदमश्लाया अथवा परमिन्दा के पाप में क्यों गिना जाता है ? जो क्षमा परम धर्म है वही यदि दुष्कर्म करने वालों के लिये की जाती है तो महापाप क्यों समझा जाती है ? सचमुच यदि कोई अपनी साध्वी स्त्री को बन में छोड़ आवे, तो रोग से महापापो कहेंगे, किन्तु श्री रामचन्द्र जी ने श्री जानकी जी को बन में भेज दिया श, तथापि उन्हें तो कोई भी महा- पासको नहीं कहता, सो क्यों?

इस पर मैं ने निश्चय किया कि अवस्थाभेद से यह सब होता है। यह बात मेरे मन के जम गई। इस के आगे जो मैं एक दिन निर्लज्ज काम की बात कहूंगी, इसीलिये मैं ने इस बात को मन ही मन स्मरण कर रखा था। और इसी लिये यह गीत भी यहां पर लिख दिया।