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पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/२८

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इन्दिरा
२४

नाव पर चढ़ी हुई कलकत्ता आते समय दूर ही से उसे (कलकत्ते) देख कर मैं विस्मित और भयभीत हुई। मैंने देखा कि अटारी पर अटारी, घर के पाल घर, मकान के पीछे मकान, उस के पीछे भी मकान; मानों कलकत्ता अटालिकाओं का समुद्र है कि जिस का अन्त-संख्या-और सीमा नहीं है। जहाज़ के मस्तूलों के जङ्गल को देख कर मेरे ज्ञान, बुद्धि, सब उथल पुथल हो गये। नावों की अनगिनत और अनन्त पांति देख कर मन में कहा कि इतनी नावों को आदमी नें बनाया क्यों कर? *पास आकर देखा कि सीरवर्ती राजमार्ग में गाड़ी, पालकी पिपीलिका को पंति की भांति चल रही है, और जो पैदल चल रहे हैं, उन की तो कुछ गिनती ही नही है। तब मैंने मन में सोचा कि इन आदमियों के जंगल कलकत्तेमें मैं चाचा को क्यों कर खोजूँगी! अरे! नदी तीर की बालुकाराशि में से जीन्हे हुए बालू के कण को क्यों कर खोज निकालूंगी?

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छठा परिच्छेद।

सुबो!

बाबू कृष्णदास कलकत्ते कालीघाट में पूजा करने आये थे। भवानीपुर में उन्होंने डेरा दिया। फिर मुझ से पूछा,―“तुम्हारेचाचा का घर कहाँ पर है कलकत्ते में या भवानीपुर में?"


*पर कलकत्ते में नाबों की समस्या पहिले की अपेक्षा शताश भी नही है।