पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/३१

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छठा परिच्छेद।

नई पत्ती निकलती है, जैसे हवा में खेलती है, इसी प्रकार उस के सारे अंग थिरक रहे थे। जैसे नदी में तरंगें खेलती हैं―वृक्ष का शरीर भी उसी तरह हिल्लोरित होता था―इसलिए मैं कुछ जांच न सकी का बात क्या है। उसके मुख में न जाने क्या लगा हुआ था कि जिस से उस ने मुझ पर जादू डाला। पाठको को इस बात के स्मरण दिलाने की कोई आवश्यकता नहीं है कि मैं मर्द नहीं हूं, वरन स्त्री हूँ-सो मैं भी एक दिन पूरी सौंदर्य -गर्विता थी। सुबो के संग एक तीन बरस का बालक है, वह भी उसी प्रकार एक अधखिले फूल के समान है। वह उठता है, गिरता है, बैठता है, खेलता है, हिलता है, डोलता है, नाचता है, दौड़ता है, हंसता है, बझता है, मारता है, और सबों को प्यार करता है।

मुझे पलक शून्य से सुबो और उस के लड़के को निहारती देख बाबू कृष्णदास की स्त्री चटक कर बोली,―

"बातों का जवाब क्यों नहीं देती? क्या सोच रही हो।” मैंने पूछा,―“ये कौन हैं?”

इस पर उन्हों ने डपट कर कहा,―क्या यह भी बतजाना पड़ेगा? यह सुबो है, और कौन है?”

तम सुबो ज़रा मुस्कुरा कर बोली―“हा! मौसी! ज़रा बतला देना चाहिये, यह नई है, मुझे पहिचानती तो है नहीं।” यो कह वह मेरी ओर फिर कर कहने लगी, “अजी! मेरा नाम सुमापिणी है, ये मेरी मौसी हैं, मुझे लड़कपन से ये लोग “सुबो” कह कर पुकारती आती है।”