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पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/३८

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इन्दिरा।

मुशाहरा का नाम सुनते ही मुझे रुलाई आ गई। मैं ने कहा- “वही दें।”

मन ही मन सोचा कि बखेड़ा मिटा―पर सो न हुआ, लम्बे बोतल में बहुत स्याही है। उस ने कहा―

तुम्हारी उमर कितनी है? अन्धेरे में उमर का ठिकाना नहीं मालूम होता, पर बात तो लड़के की सो मालम होती है।

मैंने कहा―उन्नीस बीस बरस।

माल०―ऐ बाछी! तब तू अपनी नौकरी दूसरी जगह खोज। मैं सयानी लड़की को नहीं रखती।

सुभाषिणी बीच ही में बोल उठी―“क्यों मा! क्या सयानी लड़की काम नहीं कर सकती?

माल०―दुर पागल! सयानी लड़की क्या अच्छी होती है?

सु०―सो क्यो मा! क्या सारे देश की सयानी लड़की खराब होती है?

माल०―सो नहीं है―पर जो गरीब है, और काम धंधा करके जीती है सो क्या अच्छी होती है?

इस बार मैं रोना नहीं रोक सको। रोतो हुई वहां से उठ गई। स्याही के बोतल ने बहू से पूछा―

“छोकड़ी चली क्या?”

सुभाषिणी ने कहा―मालूम तो ऐसा ही होता है।

मा―अच्छा जाय।

सु०―क्या गृहस्थ के घर से बिना खाये जायगी? इस को कुछ खिला कर विदा कर देती हूं।