यह कह कर सुभाषिणी वहां ले उठ मेरे पीछे २ आई। मुझे घर के अपने सोने के घर ले गई। मैंने कहा―
“अब आप मुझे क्यों रोकती हैं? पेटवा प्राण की लालच से मैं ऐसी बात सुनने के लिये नहीं रह सकूंगी।”
सुभाषिणी ने कहा―रहने का काम नहीं है, पर मेरे निहोरे आज की रात भर रहो।
कहाँ जाऊंगी? यही सोच कर, आंख का आंसू पोंछ, उस रात वहीं रहने को राज़ी हुई। इस के पीछे सुभाषिणी ने फिर यही बात पूछी―
“यदि यहां न रहोगी तो कहां जाओगी?”
मैंने कहा―गंगा में।
इस बार सुभाषिणी ने भी आंसू पोंछा और कहा, “तुम्हें गंगा में नहीं जाना होगा। मैं क्या करती हूं सो ज़रा बैठ कर देखो, बखेड़ा मत करना―मेरी बात सनो।”
यह कह कर सुभाषिणी ने 'हारानी' नामक दासी को पुकारा। हारानी सुभाषिणी को खास लौंड़ी थी। वह आई। वह मोटी झोंटी, काली कुचकुच, चालीस बरस से अधिक की थी। पर हंसी उस के मुह से उमड़ी पड़ती थी―चुलबुलाहट ने भी संग नहीं छोड़ा था।
सुभाषिणी बोली―
“उन को बुला ले आओ।”
हारानी बोली―“इस समय क्या वे आवेंगे? हम कैसे बुला-लावें?”