पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ २ ]

तब बेचारी गरीब इन्दिरा भी यह कह सकती है कि जब मैं भी एकाएक बड़ी हो गई, तो फिर मेरा मूल्य क्यों न बढ़ेगा ?

इन्दिरा बढ़ी होने पर अच्छी हुई, या बुरी; यही जगह बड़ी सन्देह की है। इस का विचार करना तो आवश्यक है । क्योंकि जो छोटा है, उस का छोटा ही रहना अच्छा है । क्योंकि यह देखा जाता है कि छोटे लोग बड़े होने पर कभी भले नहीं हुए । परन्तु इस तर्क को बहुतेरे छोटे लोग कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे । तब फिर इन्दिरा इस तर्क को क्यों स्वीकार करे ?

जान पड़ता है कि पाठकगण इन्दिरा के आकार बढ़ने का कारण जानने की इच्छा रखते होंगे । यदि इस कारण को समझाने लगें, तो अपनी पुस्तक की आप ही समालोचना करना पड़ेगी, किन्तु ऐसे अनुचित काम के करने को हमारी इच्छा नहीं है । तब, जो विचारशील है, वे छोटी इन्दिरा को मन लगाकर पढ़ने ही से भली भांति जान लेंगे कि उस (छोटी इन्दिरा) में क्या क्या दोष थे, और अब किस प्रकार से उन दोषों का संशोधन किया गया है । सच पूछिये तो पुराने “इन्दिरा" नाम से यह एक नया ग्रन्थ है । तो फिर नये ग्रन्थ के बनाने का सभी को अधिकार है, बस, अन्धकार की इतनी ही सफाई बहुत है ।

-----०:*:०-----