पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४७
नवा परिच्छेद।

गई थी। अपनी बहिन के संग जैसा बर्त्ताव करना चाहिये, मेरे साथ भी वह वैसा ही बर्त्ताव करती। उस के दाब से दाई लौंड़ी भी मेरा अनादर नहीं कर सकती थी। इधर रसोई पानी में भी मुझे सुख हुआ। वह बूढ़ी बाह्मणो―जिस का नाम सोना की मा था, घर नहीं गई। उसने मन में यह सोचा होगा कि 'घर आने से फिर यह नौकरी न पाऊंगी और यह (कुमुदिनी) सदा के लिये कायम हो जायगी। बस, वह यही सोच साच कर पाने अनेक पाखंड फैला कर के घर न गई! और सुभाषिणी की सिफ़ारिश से हम दोनों ही जनी रह गई। उस ने अपनी सास को समझा दिया कि “कुमुदिनी भले आदमी की लड़की होकर अकेली सारी रसोई न कर सकेगी और वुढ़िया सोना की मा भी अब कहाँ जायगी?” इस पर बूढो ने कहा,―“तो दोनो जनी को क्या मैं रख सकती हूं? इतने रुपये कहां से आवेंगे?”

बहू ने कहा―“तो एकहीं को रखना हो तो सोना की मा को रखिये क्योंकि कुमुदिनी इतना काम नहीं कर सकेगी।"

मालकिनी ने कहा―नहीं, नहीं! सोना की मा का बनाया मेरा बच्चा नहीं खा सकता! अच्छा तो दोनों जनी रहें।”

आहा! मेरा कष्ट दूर करने के लिये हो सुभाषिणी ने यह चाल चली थी। मालकिनी उसके हाथ में कल की पुतली सी थी, क्यों न हो―वह रमण बाबू की स्त्री थी न! तो उस की बात टालने का किस का सामर्थ्य था? इतने पर फिर सुभाषिणी की बुद्धि जैसी तील्ली थी स्वभाव भी वैसा ही सुन्दर था। ऐसी