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पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/५०

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इन्दिरा

सुभाषिणी―“आ, बस। बीबा पाण्डव फर्ष्ट क्लास बाबर्ची थी। कहो, अब मेरी साल को तुम ने चोन्हा?”

मैंने कहा―“हां, चीन्हा; कंगाल और बड़े आदमों की लड़लियों में सभी लोग कुछ प्रभेद मानते है।”

इस पर सुभाषिणी हंस पड़ी और बोली,―“दूर हो बे पगली कहां की! बस इसी बुद्धि पर बहती हो कि ‘हां चीन्हा!' तुम्हें बड़े आदमी की लड़की समझ कर क्या उन्हों ने तुम्हारा आदर किया है?”

मैंने कहा―तब क्या?

सुभाषिणी―उन के बेटा पेट भर खायंगे, इसी से तुम्हारा इसका आदर है। अब यदि तुम ज़रा हठ करो तो चट तुम्हारा मुशाहरा दूना हो जाय।

मैंने कहा―“मैं मुशाहरा नहीं चाहती। उसके न लेने से यदि कोई टंटा खड़ा हो, इसी लिये हाथ फैला कर उसे ले लूंगी और ले कर तुम्हारे पास जमा कर दूंगी; तुम उसे गरीब कंगालों को दे देना! मैंने रहने का ठिकाना पाया है, बस मेरे लिये इतना ही बहुत है।”

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नवां पारच्छेद।

पके केश का सुख दुःख!

मैं ने आश्रय पाया, और पाया एक अनमोल रत्न हितैषियो सखी। मैं देखने लगी कि सुभाषिणी मुझे हृदय से चाहने लग