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पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/५३

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नवा परिच्छेद

सुभाषिणी―मर! दो एक बार उखाड़ कर उठ क्यों न आती?

मैं―तुम्हारी सास छोड़े तब तो?

सुभाषिणी कहो कि―‘ऐं! पके बाल बहुत तो नहीं दिखलई देते यही कर चली आओ।

मैंने हंसकर कहा, “दिन दोपहर क्या ऐसी डकेती की जा सकती है? सब क्या कहेंगे? यह मानो मेरी बालीदीधी की डकैती ठहरी!”

सुभाषिणी―कालीदीधी की डकैती कैसी?

अरे! सुभाषिणी के संग बात करते करते मैं कुछ आत्मविस्मृत हो जाया करती थी―सोई एकाएक कालीदीधी को बात सावधानी में मेरे मुँह से निकल गई। पर इस बात को मैं दबा गई और बोली, “वह कहानी फिर किसी दिन कहूंगी।”

सुभाषिणी―अच्छा मैंने जो कहा है, उसे जरा एक बार मेरे अनुरोध से कह के देखो न!

वह सुन हंसती हंसती मैं मालकिनी के पास जाकर फिर पके बाल उखाड़ने लगी। और दो बार बाल उखाड़ कर बोली,―“ऐं! पके बाल नहीं दिखलाई देते! बस दो एक और बच रहे हैं, उन्हें कल निकाल दूंगी।”

यह सुन सिगोली खिलखिला कर हंसी और बोली, “और २ छोकड़ियां कहती हैं कि सारे बाल पक गये।”

उन दिन मेरा आदर बढ़ गया, पर मैंने मनहीं मान यह प्रतिज्ञा की कि ऐसा बन्दोवस्त करना चाहिये कि जिस में प्रति दिन बैठ