पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५३
नवा परिच्छेद

मैं—सोना की मा क्या जानती है ? वह ख़िजाब नहीं है, मेरी दवा है।

मालकिनी— बहुत ही अच्छी बात है, बेटी ! ज़रा एक आईना तो ले आ, देखूं!

तब मैं ने एक आईना ला दिया। अपना मुखड़ा देखकर मालकिनी ने कहा,---"अरे दैया! तुम्हारे बाल काले काले हो गये अरे निगोड़ी ! अभी लोग कहेंगे कि ख़िताब लगाया है।"

मालकिनी के मुख से शांत हंसी के मारे छिपते न थे, उसी दिन संध्या पीछे मेरी रसोई को बढ़ई कर के कन्धों ने मेरा मुशाहरा बढ़ा दिया; और कहा,— "बेटी! तुम्हारे हाथों में केवल कांच की चूड़ी देख मुझे कष्ट होता है।" यह कह कर उन्हों ने अप बहुत दिनों के उतारे हुए एक जोड़ी सोने के कड़े मुझे बखशिश दिये। लेती हार मानो मेरा सिट कट गया और आंखों का आंसू मैं ना रो सकी। पूसा लिये आचारी से "न लूंगी" यह कहने का मैंने अवसर ही न पाया।

समय देख कर बूढ़े मिसराइल ने मुझे घेरा और कहा— "बेटी! वह औषध और है कि नहीं ? "

मैं— क्रोध औषध? क्या वहीं जो मालकिनी को उसके स्वामी के बस कहने के लिये दी थी ?

मसाइल-दूर हो ! इसी को कहते हैं, लड़कपन की समझ! मेरे पास क्या वह सामग्री है?

मैं—नही है ? यह कैसी बात है ? क्या एक भी नहीं है?