सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५७
नवा परिच्छेद

पड़े उस के मुखड़े पर धूल।
अरी! मरजा, बुड़्ढी! चंडूल!!!

अन्त में मेरे उस तीन बरस के जायाता ने एक जली लकड़ी उठा कर बूढ़ी के पीठ पर जढ़ दी और कहा, “मेली छाछ! मेली छाछ” (मेरो सस मेरी सास) तब तो बुढ़िया खाकर चिल्ला चिल्ला कर ही रोने लगी। वह जितना ही रोती, मेरा दामाद उतना ही ताली बजा बजा कर नाचता हुआ कहता―“मेली छाछ, मेली छाछ।” तब मैंने जाकर उसे गोद में उस का मुख चुमा तब वह चुप हुआ।

दसवां परिच्छेद।

आशा का प्रदीप!

उसी दिन तीसरे पहर सुभाषिणी ने मेरा हाथ थाम्ह खींच ले कर अकेले में बैठाया और कहा,―“समधिन! तुम ने उस दिन कालीदीधी की डकैती की कहनी कहने कही थी―सो आज तक नहीं कही। तो आज उसे कहो न ―सुनूं।”

यह सुन मैं ने थोड़ी देर तक सोचा, फिर अंत में कहा,―“वह मेरे ही दुर्भाग्य की कहानी है। मेरे बढ़े बढ़े आदमी हैं, यह बात मैं कह चुकी हूं, तुम्हारे ससुर भी अहीर है, पर उन के आगे कुछ नहीं है। मेरे बाप अभी जीते हैं, उनका यह अतुलऐश्वर्य आज दिन भी है, आज भी उन के हाथीख़ाने में हाथी बंधे हैं। तब मैं जो रसोईदारी कर के पेट पालती हूं, इस का कारण कालीदीधी की डकैती ही है।”