सुभा०―दुर, मुहझौसी! जिस गांव में डाकघर हो, उस का नाम बतलाओ।
मैं―सो तो जानती नहीं, डाकघर ही जानती हूं।
सुभा०―अरे, मैं यह कहती हूं कि जिस गांव में तुम्हारा घर है, उसी गांव में ही डाकघर भी है या दूसरे गांव मे।
मैं―सो तो नहीं जानती।
तब सो सुभाषिणी उदास हुई और फिर कुछ न बोलो। दूसरे दिन उसी भांति अकेले में बोली―
“तुम बड़े घराने की लड़की हो, सो अब कब तक रसोईदारो करोगी? तुम्हारे जाने से मैं बहुत रोऊंगी―किंतु अपने सुख के लिये तुम्हारे सुख की हानि करू, ऐसी पापिन मैं नहीं हूं। सोई हमलोगों ने परामर्श किया है―”
बात पूरी होते होते बीच ही मैं पूछ बेठी कि―
“हमलोग कौन कौन?”
सुभाषिणी―“मैं और राम बाबू।”
राम बाबू अर्थात रमण बाबू। वह इसी प्रकार मेरे आगे अपने दुलह का नाम लेती थी। फिर वह कहने लगी―
“परामर्श किया है कि तुम्हारे बाप को पत्र लिखें कि तुम यहां हो। सोई कल डाकघर को बात पूछती थी।”
मैं―तो क्या वे सब बातें उन से कही हैं?
सुभा०―कहा तो है―इस में दोष क्या है?
मैं―दोष कुछ भी नहीं है। हां, फिर क्या हुआ?
सुभाषिणी―अभी, महेशपुर में ही डाकघर है, इस बात का