निश्चय कर के पत्र लिखा गया है।
मैं―क्या पत्र लिखा जा चुका है?
यह सुनते ही मारे आनंद के मैं फूती अंगों न समाई। फिर गिनते कही कि कितने दिनों में चिठ्ठी का जवाब आता है, किन्तु कोई भी उत्तर न आया। मेरा करम जग था कि नहीं―महेशपुर में कोई डाकघर न था। उस समय गांव पांव में डाकघर नहीं खुले थें। डाकघर दूसरे गांव में था, पर मैं तो राजा की रानी थी―इसलिये इतनी ख़बर नहीं रखती थी। डाकघर का पता लगाने से कलकत्ते के बड़े डाकघर में चिठ्ठी खोली जाकर रमण बाबू के पास आई।
मैंने फिर रोना प्रारंभ किया, किन्तु र-बाबू छोड़नेवाले आदमी न थे, सुभाषिणी ने मुझ से आकर कहा―
“अब दुलहा का नाम बतलाना चाहिये”
तब मैंने लिखना सीखा था। सो पति का नाम लिख दिया। फिर पूछा गया―
“ससुर का नाम?”
उसे भी लिख दिया।
“गाँव का नाम?”
यह भी लिख दिया।
“ड़ाकघर का नाम?”
मैं बोली―सो क्या जानू?
सुना कि रमण बाबू ने वहां भी पत्र लिखा किन्तु कोई उत्तर