पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/७

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प्रथम परिच्छेद।

भीतर चारों ओर कमख़ाब मढ़ी है, ऊपर चांदी की वीट (कोर) लगी है और बांसों के छोर में चांदी के बने हुए घड़ियाल (मगर) के मुख लगे हुए हैं। दासी जो आई है वह गरद (रेशमी वस्त्र) पहिर कर आई है, उस के गले में बड़े २ सोने के दाने पड़े हैं और पालकी के जंग काली दाढ़ीवाले चार भोजपुरिये आये हैं।

मेरे पिता बृरमोहन दत्त खान्दानी अमीर हैं। सो वे हँस कर बोले, "बेटी इंदिरा! अब तुम्हें नहीं रख सकते। अभी जाओ, फिर शीघ्र बुला लेंगे। देखो, अंगुरी फूल कर ले के पेड़ सी हो जाय' सो देख कर हंसना मत (अर्थात् हीन अवस्था से उच्च अवस्था के पानेवाले को देख कर हँसो मत)"

मनही मन मैंने पिता जी की बातों का उत्तर दिया। कहा कि, 'मेरा माण मानों अंगुरी फूल कर एक पेड़ हुआ; सो तुम इस बात को जानकर मत हसां।"

मेरी छोटी वहिन कामिनी कदाचित् उस बात को समझ गई थी—बोली, "जीजी (दीदी) ! अब आओगी कब?" यह सुन मैं ने उसके गालों को दबा कर कर लिया।

कामिनी ने कहा,—"जीजी ! ससुरार केली होती है, तो कुछ जानती हौ न ?"

मैं ने कहा—"जानती हू। यह मदन बन है, वहाँ पर रति पति मदन पारिजात फूल के बान मार कर लोगों का जन्म सफल करता है, वहां पांव देते ही स्त्री जाति अप्सरा हो जाती है और पुरुष में भेंड़ें बन जाते हैं। वहां नित्य झोयल कुहुकती है, जाड़े में भी दक्षिणी पवन चलती है और अमावस्या का भी पूर्ण चन्द्र का उदय होता है।"

कामिनी ने हँसकर कहा "मौत है और क्या ?"