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पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/७२

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इन्दिरा

यह सोच कर मैं ऐसी जगह जा कर खड़ी हुई कि भोजन स्थान से बाहर के किते में खाने के समय जो इधर उधर निहारना हुआ जाय, वह मुझे देख सके। मैंने मन ही मन कहा कि, जो ये इधर उधर ताकले हुए न जायं तो मैं समझ लूंगी कि मैंने इस बीस बरस की बैस तक पुरुषों का चरित्र कुछ भी नहीं जाना। मैं साफ़ कहती हूं–“तुम लोग मुझे क्षमा करना कि मैं उस समय अपने सिर का कपड़ा भरपूर हटा कर खड़ी हुई थी। इस समय यह बात लिखते मुझे लाज आती है, पर उस समय मैं कैसी आफ़त में फंसी थी, उसे ज़रा विचार तो लो?”

आगे आगे रमण बाबू गये, वे चारों ओर देखते भालते गये, मानो झांक ताक की खबर लेते हो कि कौन किधर है। उन के पीछे रामरामदत्त गये, उन्होंने किसी ओर न देखा। सब के पीछे मेरे ‘पति’ गये पर जाने के समय उनकी आंखें मानों चारों ओर किसी को खोजती थीं। मैं उन के नैनों को पाहुनी हुई, क्योंकि उनके नेत्र मेरीही खोज करते थे, यह बात मैं भलीभांति जानती थी। ज्योंही उन्होंने मेरी ओर देखा त्योंही चट पट जान बूझ कर मैंने―क्या कहूं कहते लाज आती है―सांप का फन फैलाना जैसे स्वभावसिद्ध है वैसे ही हमलोगों का कटाक्ष भी है। जिन्हें अपना पति जान चुकी थी, उन के ऊपर कुछ अधिक मात्रा का विष क्यों न ढाल देती? जान पड़ता है कि ‘प्राणनाथ’ घायल होकर बाहर गये।

तब मैंने हारानी की शरण लेने की इच्छा की। अकेले में बुलाते ही वह हंसते हंसते आ पहुंची। वह ठटा के हंस कर बोली