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पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/७३

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बारहवां परिच्छेद।

“परोसने के समय बूढ़ी मिसराइन की नक़ल देखी थी?” यों कह और जवाब सुनने का आसरा न देख कर उस ने फिर हंसी का फुहारा छोड़ा।

मैं न कहा―“सो मालूम है, किन्तु उस बात के लिये मैंने तुझे नहीं बुलाया है। इस जन्म भर के लिये मेरा एक उपकार कर। ये बाबू कब जायंगे, इस बात को ख़बर तू जल्दी से मुझे ला दे।”

हारानी की हंसी एक दम से बंद हो गई। इतनी हंसी इस तरह उड़ गई जैसे धूएं के अंधेरे में आग छिप जाती है। उसने गंभीर भाव ने कहा―“छिः बीबी रानी! मैं नहीं जानती थी कि तुम्हें यह रोग भी है।”

मैं हंसी और बोली―“आदमी का सब दिन एक सा नहीं बीतता। इसलिये अब तू बड़प्पन रहने दे और बतला कि मेरा यह उपकार करेगी कि नहीं।”

हारानी ने कहा―“किसी तरह भी मुझ से ऐसा खोटा काम न होगा।”

मैं ख़ाली हाथ हारानी के पास नहीं गई थी, बरन महीने के जो रुपये थे उन में से पांच रुपये उस के हाथ में रख के मैंने कहा―“तुझे मेरे सिर की कसम है, वह काम तुझ को करनाही पड़ेगा।”

हारानी उन रूपयों को उछाल कर फेका ही चाहती थी पर वैसा न कर के उस ने पास ही एक मट्ठी के ढ़ीहे पर रख दिया और कहांब―बहुतही गंभीर भाव से, जिस में हंसी की गंध भी न थी