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इन्दिरा

पहिरो।” यों कह कर उस ने एक फूलदानी में से चमेली की अधखिली कली के कले को मेरे कानों में पहिरा दिया। फिर उसी का गुलीवन्द, उसी के बाजू और उसी के दुखरीमाला पहिराई। इसके अनंतर एक जोड़े नये सोने के इयररिंग (कुंडल) निकालकर कहा―

“इन्हें मैंने आने रुपये से र० बाबू से ख़रीदवा कर मंगवाया है, केवल तुम्हें देने ही के लिये। इसलिये कि तुम वहां रहोगी, इसे पहिरोगी तो मुझे याद किया करोगी। क्या जानू, रखो! यदि आज मे फिर तुम से भेंट न हो? भग्वान ऐसा ही करे इसीलिये आज तुम्हें यह इयररिंग पहरा दुंगी। बस इस के पहिरने में ‘नाही नुहीं’ मत करो।”

इतना कहते कहते सुभाषिणी रोने लगी, मेरी तो आंखों में आंसु भर आये,और फिर मैं ‘निहीं’कर सको। सुभाषिणी ने इयरिंग पहिरा दिया।

मेरे सिंगारपटार होने पर सुभाषिणी के बच्चे को कार्ड दे गयी। उसे गोदी में ले कर मैं उसके साथ कहानी कहने लगी। एक ही कहानी के सुनते सुनते वह सो गया। इसके बाद मेरे मन में एक दुःख की बात उठी थी, उसे भी सुभाषिणी से बिना कहे मैं न रह सकी। मैं ने कहां―

“मैं उमंग से फूली अंगों नहीं समाती, किन्तु मन ही मन उन की कुछ निन्दा भी करती हूं। क्योंकि मैंने तो पहिचान लिया कि ये मेरे दूलह हैं इसीलिये जो कुछ मैं कर रही हूं मेरी समझ