पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/९८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
९४
इन्दिरा।

सोलहवां परिच्छेद।

खून कर के फांसी पड़ी।

पुरुषों को जलाने के लिये जितने उपाय विधाता ने स्त्रियों को दिये हैं, उन सभी उपायों का अबलंबन कर के मैं आठ दिन तक प्राणनाथ को जलाती रहो। मैं स्त्री हूं―इसलिये क्योंकर मुंह खोल कर उन सब बातों का वर्णन करू―किन्तु यदि मैं आग सुलगाना न जानती होती तो कल की रात इतनी आग न भडकती। किन्तु किस उपाय से आग लगाई, किस तरह उस में फूंक मारा और किस भांति प्राणप्यारे के हृदय को जलाया, मारे लाज के इन बातों का जवाब मैं नहीं दे सकती। यदि मेरी किसी रसीली पाठिका ने नरहत्या का व्रत किया हो और उस में वह सफल भी हुई हो सो मेरी बातों के मर्म को वह भली भांति समझ सकेगी। और यदि कोई रंगीले पाठक कभी किसी नरघातिनी नारी के हाथ पड़े होंगे तो वे भी मेरी बातें समझेंगे। बस इस से अधिक क्या कहूं कि स्त्रीजाति ही इस पृथ्वी पर कण्टक है, क्योंकि मेरी जाति से इस पृथ्वी पर जितनी ख़राबी होती है, उतनी पुरुष जाति से नहीं होती। किन्तु भाग्य की बात यही है कि इस नरघातिनी विद्या को सभी स्त्रियां नहीं जानतीं, नहीं तो अब तक यह पृथ्वी मनुष्यों से खाली हो गई होती।

इन आठ दिनों तक मैं बराबर रात दिन प्राणपति के पासही रहा करती, प्रेम से बातें करती, और रूखी बात एक भी मुंह से न निकालती, हंसी, भगगाई (अग भगी) आदि सो