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न्याय से सम्बन्ध

निष्पक्षपातता के ख्याल से क़रीब क़रीब मिलता-जुलता 'बराबरी' का ख्य़ाल है। बहुधा 'बराबरी' के ख्य़ाल को ध्यान में रख कर ही 'इन्साफ़ी' या 'बेइन्साफ़ी' का निर्णय किया जाता। बहुत से मनुष्यों का तो यहां तक विचार है कि इन्साफ़ अर्थात न्याय का विशेष आधार बराबरी का ख्य़ाल ही है। प्रत्येक मनुष्य का विचार है कि न्याय समानता अर्थात् बराबरी चाहता है। यह बात दूसरी है कि कभी कभी मस्लहत के ख्य़ाल से असमानता का बर्ताव आवश्यक हो जाय। जो लोग सब मनुष्यों के समान अधिकार नहीं मानते हैं वे भी इस बात को मानते हैं कि सब मनुष्यों के अधिकारों की समान रक्षा करना न्याय-संगत है। उन देशों में भी जहां गुलामी की प्रथा प्रचलित है कम से कम इतना माना अवश्य जाता है कि स्वामी के समान सेवक के अधिकार भी, जितने कुछ भी हों, रक्षणीय हैं। यदि कोई अदालत स्वामी तथा सेवक दोनों के साथ समान साक्षी का व्यवहार नहीं करती है तो वह अदालत इन्साफ़ से गिर जाती है। किन्तु साथ ही साथ वे संस्थायें भी अन्यायी नहीं समझी जाती हैं जो ग़ुलामों को कुछ भी अधिकार नहीं देती हैं; क्योंकि उनका ऐसा करना मस्लहत के विरुद्ध नहीं समझा जाता है। जिन मनुष्यों का विचार है कि उपयोगिता के विचार से मत-भेद होना अवश्य है, वे धन के असमान बटवारे को बेइन्साफ़ी नहीं समझते। वे सामाजिक ऊंच नीच को न्याय के विरुद्ध नहीं समझते। किन्तु जिन लोगों का ख्य़ाल है कि धन का असमान बटवारा तथा सामाजिक ऊंच नीच मस्लहत के ख़िलाफ़ है वे इस प्रकार की बातों को बेइन्साफ़ी समझते हैं। जो मनुष्य सरकार को